पान:संपूर्ण भूषण.djvu/235

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१८५ फुटकर रिबे को बहत समीर मंद कोकिला की कूक कान कानन सुनाई है। इतनो सँदेसो है जू पथिक तिहारे हाथ कहो जाय कन्त सी बसन्त ऋतु आई है ॥ ५० ॥ (५०) अंबनि के-आम्रवृक्षांचे. झोर-गुच्छ, सुहात=शोभते. सँदेसो= निरोप. कन्त=कत, प्रिय, पथिक-प्रवासी. जिन किरनन मेरो अंग छुयो तिनहीं स पिय अंग छुवै क्यों न मैन दुख दाहे को । भूषन भनत तू तो जगत को भूषन है हौ कहा सराह ऐसे जगत सराहे को ॥ चंद ऐसी चाँदनी तू प्यारे १ बरसि, उतै रहि न सके, मिलाप होय चित चाहे को। तू तो निसाकरे सब ही की निसा करै मेरी जो न निसा करे तो तू निसाकर काहे को ॥ ५१ ॥ (५१) छुयो= स्पर्श केला. मैन दुख दाहे को=कामाग्नीने दुग्ध झालेल्यास. निसाकर-चन्द्. निसा-तृप्ति. कारो जल जमुना को काल सो लगत आली छाइ रह्यो मानो यह विष काली नाग को। बैरिन भई है कारी कोयल निगोड़ी यह तैसो ही भंवर कारो बासी बन बाग को ॥ भूषन भनत कारे कान्ह को वियोग हिये सबै दुखदाई जो करैया अनुराग को । कारौ घन घेरि घेरि मान्यो अब चाहत है एते पर करति भरोसो कोरे काग को ।। ५२ ॥ (५२) कारो=काळे. निगोड़ी-दुष्ट ( स्त्रियांच्या तोंडी मराठीतील ‘मेली' ह्या शब्दासारखा हा शब्द नेहमी असतो ) भंवर=भुगा. कान्ह-कृष्ण काग-कावळा. एते पर इतक्यावर. सवैया साधे भरी सुखमा सु खरी मुख ऊपर आइ रही अलके। कवि भूषन अंग नबीन बिराजत मोतिन माल हियै झलकें ॥ उन दोउन की मनसा मनसी नित होत नई ललना ललकें ।