पान:संपूर्ण भूषण.djvu/236

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-=-= -=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-=-= टकर १८६ भरि भाजन बाहिर जात मनौ मुसुकानि कि छबि की । छलकै ॥ ५३॥ (५३) सौधे-चांगळे, सुगंधी द्रव्य. अल-केश. हियै-उरावर. भाजन-पात्र. कवित्त मनहरण नैन जुग नैनन सो प्रथमै लड़े हैं धाय अधर कपोल तेऊ टरै नाहिं टरै हैं । आड़े अड़ि पिलि पिलि लड़े हैं उरोज बीर देखो लगे सीसन पै घाव ये घनेरे हैं। पिय को चखायो स्वाद कैसो रति-संगर को भये अंग अंगनि ते केते मुठभेरे हैं। पाछे परे बारन कौ बाँधि कहै आलिन स भूषन सुभट ये ही पाछे परे मेरे हैं ॥ ५४ ॥ (५४) जुग=दोन. नैन लड़े हैं=दृष्टादृष्ट झाली. धाय=र्धाबून टरै टळत. पिल पिलधक्का देऊन. अड़ि अडिन्थबून. केते-फिती. मुठभेरे=भेटाभेट. सुने हूजै बेसुख सुने बिन रह्यो न जाय याही ते बिकलसी बिताती दिनराती हैं । भूषन सुकवि देखि बावरी बिचार काज भूलिये के मिस सास नन्द अनखाती है ॥ सोई गति जानै जाके भिदी होय कानै सखि जेती कदै तानै लेती छेदि छेदि जाती हैं । हूक पॉसुरी मैं, क्यो भरो न आँसुरी मैं, थोरे छेद बाँसुरी मैं, घने छेद किये छाती हैं ॥ ५५ ॥ (५५) सुने हुजे=ऐकावे लागते, हूजे–व्हावे लागते. बिकलसी=व्याकुळवत्. बिताती-कंठतात. अनखाती हैं रागावतात. भिदी-भेदलेली. जेती= जितक्या. कानै–कानात. सुरी-बगल. घने–पुष्कळ. का वा समाप्त माप्त