पान:छन्दोरचना.djvu/284

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पीडीएफ सुरेशभट इन च्या सौजन्याने RAN9 वृत्तविहार विधुरवितान (३६७) [। • • • • • ७ - [[ ۔ -- ں ں ں اس

    • कलयति सकलं परगातदोषं

रचयति विकल : स्वकमतपीर्ष परमिह विरलोऽमितगतिबुद्धि प्रथयति विमलोऽपरगुणशुद्धिम् ? ( अधप १२/९७ ) सुपवित्रा (३६८) [। ७ • • • • • • • ! ں ں ن ں------ जलधर वरसुनि गगर्नि छटा ही गडद रुचिर शुचि निळवट पाही; निघुनि सकल मल बघ बघ मित्रा धरणि हसतमुख कशि सुपवित्रा ! ( १३१) [۔ --ں ں ں نہ ! -- ب --- ب --seIgpfa? (R && )[IچHU * ‘ भार्गवोतिला परिसुनि धीरें चाप सजिलें रघुकुलवीरें बाण जोडुनी श्रुतिपथि नेलें मण्डलाकृति त्वरितचि केलें.” (मोसग्र ८/५१७) [--ں بں ف -- l -----ں ں --1](o واaf{r{T? (R واقعہ ،

  • शिल्पकलेची देखत करणी वाजति जन्त्र सुस्वर पवनों ठिक्कत कैशी सुन्दर हरिणी कुख्रित पक्षी मव्जुळवचनीं.” (डिरुस्व)

[- د د د د --- ا د د --- بں --l ] ( مواG:{c{dt(R * कर्णविभूषण कुण्डल झळका त्या तळेि शोभति चम्पककलिका नासिक बेसरेिं वज्रककणिका गण्डल मण्डल शोभति रुचिका '. (डिरुस्व ) و؟ .3