Jump to content

पान:छन्दोरचना.djvu/299

विकिस्रोत कडून
या पानाचे मुद्रितशोधन झालेले नाही

पीडीएफ सुरेशभट इन च्या सौजन्याने छन्दौरचना 'सुरासुरवन्द्य? (५२०) [- | ܟ ܚ - ܟ ܚ - | ܚ ܝ - ܟ ܚ - | ܚ ܝ - ܟ ܚ - | ܚ ] ‘ नुरे नुरवीत, पुरे पुरवीत, सरे सरवीत नसो हरे हरवीत, भरे भरवीत, मरे मरवीत नसो, सुरासुरवन्द्य, नव्हे जगनिन्द्य, वरावर सद्य असो, तरे परपार, धरे निजसार, सन्तत (?) विचार असो!” (राकधास ६५) * त्रिदशाङ्गना ? (५२१ ) [- | ܚ - ܚ - ܝ ܚ | - ܚ ܝ ܚ - ܝ ܐ ܟ ܠ --ں ں ں نLl] ** स्थितवति तत्र गोप्तरि भटैस् त्रिदशाङ्गनाब्जिनी सवितरि तुङ्गतेदयमनेकपराजयोर्जिताः दितिजगणस्यं भीतिमतिदुर्धरतां दधौ क्रियाः स वितरितुं गतेोऽदयमनेकपराजयोर्जिताः” ( रह ४६/६५) नन्दन (५२६) [। • • • • - کS } o -ں||------ ن -- ن!-- س ن ں س--[ अयि सखये, सुधांशुवदने, मदीय हत्स्वामिनी, तव विरहें दिनींहि मजला छळी पहा यामिनी; तुजावण मी कुठाहे फिरलों तथापि आनन्द न, चल मज धे समीप तुझिया, नको मला नन्दन. ( १५९) संस्कृतांत भका (१०/३६) हा श्लोक आणि मराठींत भिजी २१० वी कामक्रीडा (५३५) [I----|----|----|---]

  • कामक्रीडासत्तोऽप्युद्यत्पापव्यापस्ते भक्तया

प्रत्याख्यानो राज्यश्रीभुकू श्रद्धाशाली सचेताः तीर्थे शल्वं नामाऽबध्नात् त्रैलोक्यार्च सद्विम्बिसारो भूपः श्रीसिद्धार्थ क्ष्माभुग्वंशाकाशार्कः ” ( चव २७) [-- ں ں --lں س-- ں ں --lں ں--ں ں --lں ں سے ں ن-l]( & ۹3ا)HfRT नाच तरङ्गित काचघरी विधुयामि करी किति मोहमयी ! काञ्चनकान्त असूनिह लाञ्छन्न आाणि विनाशच्च हो समय.